what follows is something i wrote way back..maybe in my teens..i dont remember exactly... but i believe its a good piece of work.. and also right now reflects my journey ... so here it goes..
एक पेड़ है मेरे आँगन में, जिस से बातें करता हूँ,
साथ है मेरे बचपन से, उससे अक्सर मिलता हूँ,
एक दिन यूं ही मैंने उस से नाम उसका पूछ लिया,
हस कर उसने धीरे से मेरा ही नाम दोहरा दिया...
उस दिन से निस्बत और भी गहरे हो गए..
इंतज़ार में तेरे अक्सर हम साथ बैठे रो गए.
हमारा रिशता है हमेशा हर वक्त..
कहता है मुझसे, मैं तेरा हूँ वसुहत..
मेरी तरह वह भी सजदे किसी के करता है ..
चाँद के पास कहीं तारा उसका रहता है ..
शायद मेरी खातिर ही जिया जाता था,
अपनी अनुशा का दीदार किया जाता था,
आज जो टुटा हुआ देखा मुझे,
आखिर बोल ही पड़ा," चल हमनाम.. खुद्खुशी कर लें
आंगन में मेरे ही टूट के बिखरा,
सुबुक पलाश को सबने ही कुचला
जाते जाते कह गया मुझसे, "तू मुसाफिर है , मुसाफिर ही रहना,
रात को चाँद के पास देखना, मेरा सफर खत्म हुआ.. मेरा तारा टूट गया.."